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ideology and therois of mass commnucation unit- 4.1



नियामक सिद्धांत (Normative Theories)

समाज की अपनी सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था होती है। कुछ नियम व आदर्श होते हैं। इसी व्यवस्था के तहत नियम व आदर्श को ध्यान में रखकर संचार माध्यमों को अपना कार्य करना पड़ता है। संचार माध्यमों के प्रभाव से सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था न केवल प्रभावित, बल्कि परिवर्तित भी होती है। यहीं कारण है कि संचार विशेषज्ञ सदैव यह जानने के लिए प्रयासरत रहते है कि समाज का सामाजिक व राजनैतिक परिवरेश कैसा है? किसी देश व समाज के संचार माध्यमों को समझने के लिए उस देश व समाज की आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था, भौगोलिक परिस्थिति तथा जनसंख्या को जानना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके अभाव में संचार माध्यमों का विकास व विस्तार असंभव है। इस सम्बन्ध में संचार विशेषज्ञ  फ्रेडरिक सिबर्ट, थियोडोर पीटरसन तथा विलबर श्राम ने 1956 में प्रकाशित अपनी चर्चित पुस्तक Four Theories of the Press के अंतर्गत प्रेस के चार प्रमुख सिद्धांतों की विस्तृत व्याख्या की है, जिसे नियामक सिद्धांत कहा जाता है। जो निम्नलिखित हैं :-
प्रभुत्ववादी सिद्धांत ((Authoritarian Theories)
उदारवादी सिद्धांत (Libertarian Theories)
सामाजिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत (Social Responsibility Theories)
साम्यवादी मीडिया सिद्धांत ( ( Communist Media Theories)
         इन चारों सिद्धांतों का प्रतिपादन प्रेस के संदर्भ में किया गया है। बाद में संचार विशेषज्ञों ने इसे मास मीडिया के संदर्भ में देखते हुए दो अन्य सिद्धांतों को प्रतिपादित करके जोड़ा है।
लोकतांत्रिक भागीदारी का सिद्धांत (Democratic Participant Theories)
विकास माध्यम सिद्धांत (Development Media Theories)
(नोट : हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के स्नातक प्रथम सेमेस्टर के पाठ्यक्रम कें साम्यवादी मीडिया सिद्धांत और विकास माध्यम सिद्धांत को सम्मलित नहीं किया गया है।)

प्रभुत्ववादी सिद्धांत
(Authoritarian Theories)

         प्राचीन काल के शासकों का अपने साम्राज्य पर पूर्ण नियंत्रण होता था। उसे सर्वशक्तिमान तथा ईश्वर का दूत माना जाता था। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने अपने दार्शनिक राजा के सिद्धांत में शक्तिशाली राजा का उल्लेख किया है। प्रभुत्ववादी या निरंकुश शासन-व्यवस्था में व्यक्ति व समाज के पास कोई अधिकार नहीं होता है। उसके लिए शासक वर्ग की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य होता है। ऐसी व्यवस्था में शासक को उसके कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराने के लिए विधि का अभाव होता है। मध्य युगीन इटली के दार्शनिक मेकियावली ने अपनी पुस्तक  The Prince में शासक को सत्ता के लिए सभी विकल्पों का प्रयोग करने का उल्लेख किया है। इसका तात्पर्य यह है कि शासक के शक्ति-प्रयोग व दुरूपयोग पर किसी प्रकार का परम्परागत या वैधानिक प्रतिबंध नहीं होता है। तत्कालीक शासक वर्ग की प्रेस से अपेक्षा होती थी कि वह यह प्रचारित करें कि ...शासक वर्ग सर्वोपरि है। ...उसके जुबान से निकला हर वाक्य कानून है। ...शासक वर्ग पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता है। ...शासक वर्ग का काम शासितों की भलाई करना है, जिसे वे बखूबी तरीके से कर रहे हैं ...इत्यादि। 

       1440 में हालैण्ड के जॉनगुटेन वर्ग ने टाइप का आविष्कार किया। इसके बाद प्रिंटिंग प्रेस अस्तित्व में आया। उस दौरान दुनिया के अधिकांश देशों (राज्यों) में प्रभुत्ववादी या निरंकुश शासन-व्यवस्था प्रभावी थी, जिसके शासक वर्ग को सर्वशक्तिमान तथा सर्वगुण सम्पन्न समझा जाता था। अपने अस्तित्व को बनाये व बचाये रखने के लिए शासक वर्ग प्रेस की आजादी के पक्षधर नहीं थे। अत: प्रेस पर अपना नियंत्रण रखने के लिए निम्नलिखित नियमों को बना दिया :- 
लाइसेंस प्रणाली : प्राचीन काल में शासक वर्ग ने प्रेस पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण रखने के लिए प्रिंटिंग प्रेस लगाने के लिए लाइसेंस अनिवार्य कर दिया। शासक वर्ग को नजर अंदाज करने पर लाइसेंस रद्द करने की व्यवस्था थी। 
सेंसरशिप कानून : लाइसेंस लेने के बावजूद प्रेस को कुछ भी प्रकाशित करने का अधिकार नहीं था। सेंसरशिप कानून के अनुपालन तथा सत्ता विरोधी सामग्री के प्रकाशन पर प्रतियों का प्रसारण रोकने का अधिकार शासक वर्ग के पास था। 
सजा : शासक वर्ग की नीतियों के विरूद्ध कार्य करने पर जुर्माना व कारावास के सजा की व्यवस्था थी। 

         ब्रिटेन में प्रेस के लिए लाइसेंस लेने की व्यवस्था हेनरी अष्टम के कार्यकाल में प्रारंभ हुआ। धर्म प्रचार सामग्री प्रकाशित करने के लिए भी अनुबंध पत्र भरना तथा निर्धारित शुल्क भुगतान करना पड़ता था। 1663  में ब्रिटेन के एक मुद्रक जॉन ट्वीन ने एक पुस्तक प्रकाशित किया, जिसमें लिखा था कि- राजा को प्रजा के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। वर्तमान लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था में यह सामान्य बात है, लेकिन प्रभुत्ववादी या निरंकुश शासन-व्यवस्था में राजद्रोह के समान थी। लिहाजा, जॉन ट्वीन को फांसी की सजा दी गयी। जबकि उक्त पुस्तक को जॉन  ट्वीन ने केवल प्रकाशित किया था, स्वयं लिखा नहीं था। राजद्रोह का नियम प्रेस को नियंत्रित करने का एक तरीका है। इसका सर्व प्रथम उपयोग 13वीं शताब्दी में शासक वर्ग के विरूद्ध समाज में अफवाह, षड्यंत्र तथा आलोचना रोकने के लिए किया गया। 

        1712 में ब्रिटिश संसद ने समाचार पत्रों पर अपना नियंत्रण व प्रभाव बढ़ाने के लिए स्टाम्प टैक्स लागू कर दिया, जिसमें सत्ता का विरोध करने वाले प्रेस के खिलाफ कठोर दण्डात्मक कार्रवाई करने का प्रावधान था। इसके अलावा समय-समय पर शासक वर्ग द्वारा कूूटनीतिक तरीके से भी प्रेस को अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास किया जाता रहा है। जैसे- शासक वर्ग द्वारा अपना समाचार पत्र प्रकाशित करना, सत्ता पक्ष की चाटुकारिता करने वाले प्रेस को विशेष सुविधा देना इत्यादि। 20वीं सदी में हिटलर ने जर्मनी में निरंकुश सत्ता का बर्बरतम रूप प्रस्तुत करते हुए प्रेस पर कठोर प्रावधान लगाये। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत में प्रेस को अंग्रेजों के कठोर काले कानूनों का शिकार होना पड़ा। 

उदारवादी सिद्धांत
(Libertarian Theories)

       यह सिद्धांत प्रभुत्ववादी सिद्धांत के विपरीत हैं। उदारवादी सिद्धांत की अवधारणा का बीजारोपण १६वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ, जो 17वीं शताब्दी में अंकुरित तथा 18वीं शताब्दी में विकास हुई। इस सिद्धांत व विचारधारा को लोगों ने 19वीं शताब्दी में फूलते-फलते हुए देखा गया। लोकतंत्र के अभ्युदय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सेंसरशिप मुक्त की स्थापना तथा सूचनाओं की  पारदर्शिता में उदारवादी सिद्धांत का विशेष योगदान है। इस सिद्धांत के अनुसार- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  मानव जीवन का आधार तथा प्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रमुख हथियार है। सामान्य शब्दों में, उदारवादी सिद्धांत के अनुसार मानव के मन में अपने विचारों को किसी भी रूप में प्रकट करने, संगठित करने तथा जिस तरह से चाहे वैसे अभिव्यक्त (छपवाने) करने की स्वतंत्रता महसूस होनी चाहिए।

         फ्रांस की क्रांति तथा 19वीं सदी में विभिन्न नागरिक अधिकारों की अवधारणा से प्रेस की स्वतंत्रता की विचारधारा को मजबूती मिली। उदारवादी शासन व्यवस्था में नागरिकों को विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गई थी। इसका सीधा प्रभाव प्रेस पर भी देखने को मिला। परिणामत: विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों व सेंसरशिपों से प्रेस को मुक्ति मिलने लगी। स्वतंत्र प्रेस की आवश्यकता के सम्बन्ध में प्रसिद्ध विचारक जॉन मिल्टन, थॉमस जेफरसेन, जॉन स्टुवर्ट मिल ने महत्वपूर्ण विचार व्यक्ति किये थे। इनके अनुसार लोकतंत्र के लिए उदारवादी सिद्धांत का होना अनिवार्य है। उदारवादी सिद्धांत के समर्थकों का मानना है कि मानव विवेकवान होता है। यदि सरकार प्रेस को स्वतंत्र छोड़ दे तो लोगों को विभिन्न तथ्यों की जानकारी उपलब्ध हो सकेगी। इस संदर्भ में जॉन मिल्टन ने  1644 में अपना विचार शासक वर्ग के समक्ष रखा तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए बगैर लाईसेंस के प्रेस स्थापित करने की सुविधा प्रदान करने की मांग की। अपनी पुस्तक ट्टएरियो पैजिटिकाट्ट में मिल्टन ने लिखा है कि मानव अपने विवेक एवं तर्क से सही-गलत तथा सत्य-असत्य का निर्णय कर सकता है। 

           उदारवादी सिद्धांत के संदर्भ में थॉमस जेफरसन का विचार है कि प्रेस का प्रमुख कार्य जनता को सूचित कर जागरूक बनाना है। शासक अपने कार्यों से विचलित न हो, इसके लिए प्रेस को जागरूक रहना चाहिए। थॉमस ने 1787 में अपने एक मित्र को लिखा कि- समाचार पत्र लोगों के विषय में सूचना व जानकारी को प्रसारित करते हैं। इससे जनभावना का निर्माण होता है। समाचार पत्र लोगों पर भावनात्मक प्रभाव भी उत्पन्न करते है। साथ ही थॉमस ने जॉच-पड़ताल के नाम पर लोगों को डराने-धमकाने वालों पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की। इस संदर्भ में दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल का विचार भी काफी महत्वपूर्ण हैं। मिल का विचार है कि मानव की मूूल प्रवृत्ति सोचने व कार्य करने तथा मूल उद्देश्य अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख पहुंचाने की होनी चाहिए। 1859 में ट्टस्वतंत्रताट्ट नामक  अपने निबंध में जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा है कि यदि हम किसी विचार पर शांत या मौन रखने को कहते हैं तो हम सत्य को शांत और मौन कर देते हैं। मिल के इस दर्शन का अमेरिकी जनता ने समर्थन किया।  

            इन विचारकों द्वारा प्रभुत्ववादी सिद्धांत पर सवाल उठाने पर सुधारवादियों ने कैथोलिक चर्च तथा राज्य सत्ता को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया, जिसके चलते मानव के अधिकार व ज्ञान का विकास हुआ। इसका एक कारण यह भी है कि उदारवादी सिद्धांत के अंतर्गत मानव के विवेक एवं स्वतंत्रता को विशेष महत्व प्रदान किया गया है तथा मानव को अपने विचारों का मालिक बताया गया है। साथ ही उउसे अपने विचारों, भावनाओं, मूल्यों को अभिव्यक्ति करने की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। इसी सिद्धांत व विचारधारा के कारण १९वीं शताब्दी में अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना हुई, जिसके अंतर्गत जनता के द्वारा, जनता के लिए सरकर का गठन हुआ। अमेरिकी संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता को सम्मलित किया गया है। इससे प्रेस को सेंसरशिप से मुक्ति मिली। वर्तमान में अमेरिका, न्यूजीलैण्ड, कनाडा, स्वीडन, ब्रिटेन, डेनमार्क समेत दुनिया के कई देशों में उदारवादी सिद्धांत और लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर अध्ययन चल रहे हैं। पिटर्सन एवं श्राम का कथन है कि- जनमाध्यमों को लचीला होना चाहिए। जनमाध्यमों में समाज में होने वाले परिवर्तनों को ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए। इसके अलावा जनमाध्यम को व्यक्तिगत विचारों तथा सत्य का उन्मुक्त वातावरण बनाते हुए मानव के हितों को आगे बढ़ाना चाहिए। 

            इस प्रकार, उदारवादी विचारधारा के प्रतिपादकों ने लोकतंत्र को सही सतरीके से चलाने के लिए लोगें को हर तरह की सूूचना में पारदर्शिता लाने तथा लोगों को उपलब्ध कराने पर जोर दिया है। यही कारण है कि 20वीं शताब्दी के अंतिम तथा 21वीं शताब्दी के पहले दशक में दुनिया के अनेक देशों में सूचना का अधिकार कानूनी को प्रभावी तरीके से लागू किया गया। भारतीय संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 को पारित कर लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत जनता के अधिकारों में बढ़ोत्तरी की। हालांकि सबसे पहले 1776 में स्वीडन ने सूचना के अधिकार को लागू किया।

आलोचना : उदारवादी सिद्धांत के जहां समर्थकों की संख्या जहां काफी अधिक हैं, वहीं आलोचकों की भी कमी नहीं है। आलोचकों का मानना है कि मौजूदा समय में उदारवादी सिद्धांत की मूल तथ्यों को भले ही वाह्य रूप में लागू किया गया है किन्तु अंतर्वस्तु में नहीं... क्योंकि जनमाध्यमों को  प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रित या प्रभावित करने वाले सरकारी व गैर सरकारी दबाव हित समूह मौजूद हैं। समाचार स्रोत अपने ढंग से भी ऐसा करते हैं। इस सिद्धांत के संदर्भ में कई बार ऐसे विचार प्रकट किये जा चुके हैं कि यदि कोई स्वतंत्रता का दुरूपयोग करें तो क्या किया जाए? दुरूपयोग को रोकने के लिए सरकार उपर्युक्त प्रतिबंध लगा सकती है, लेकिन विचार अभिव्यक्त या प्रसारित करने से पहले सेंसरशिप नहीं लगाया जा सकता है। हालांकि बाद में उसे उचित कारणों के आधार पर कानून के कटघरे में खड़ा करके उचित दण्ड दिया जा सकता है। इसका अर्थ विचारों का दमन नहीं हो सकता है।  

सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत
 (Social Responsibility Theories)

             सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिका (1940) में स्वतंत्र एवं जिम्मेदार प्रेस के लिए गठित आयोग ने किया, जिसके अध्यक्ष कोलम्बिया विश्वविद्यालय के राबर्ट हटकिन्स थे। इस सिद्धांत को उदारवादी सिद्धांत की वैचारिक पृष्ठभूमि पर विकसित किया गया है। सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत के अनुसार- जनमाध्यम केवल समाज का दर्पण मात्र नहीं होता है, बल्कि इसके कुछ सामाजिक उत्तददायित्व भी होते हैं। इस संदर्भ में आर.डी. केस्मेयर ने आयोग के समक्ष कहा कि टेलीविजन न केवल समाज का, बल्कि जनता के संस्कारों एवं प्राथमिकताओं का भी दर्पण है। फ्रेंक स्टेन्फन का कथन है कि जन माध्यम समाज के दर्पण के रूप में कार्य करते हैं। किसी भी घटना को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। साथ ही आर.डी. केस्मेयर व फे्रेंस स्टेन्फन समेत तमाम मीडिया कर्मियों का स्वीकार करना पड़ा कि जनमाध्यमों का कार्य समाज में घटी घटनाओं को पेश करना मात्र ही नहीं है, बल्कि इनके कुछ सामाजिक उत्तरदायित्व भी हैं। जनमाध्यमों का प्रमुख उत्तरदायित्व यह है कि वे अपने कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने, शिक्षा का प्रसार करने, साम्प्रदायिक सद्भावना व राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने तथा देश हित की रक्षा में मदद करें। जनमाध्यमों को केवल समाज की इच्छा से नियंत्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि एक अच्छे पथ प्रदर्शक की तरह समाज हित में उचित निर्णय भी लेना चाहिए।

            अमेरिका में सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिपादन जनमाध्यम के विकास के बाद हुआ। 20वीं शताब्दी के चौथे दशक में अमेरिकी जनमाध्यमों में आपसी प्रतिस्पर्धा तथा व्यावसायिक हित के कारण समाचारों को सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत करने की होड़ लगी थी। इससे एक ओर जहां सामाजिक सरोकार प्रभावित हो रहे थे, वहीं उदारवादी सिद्धांत के आत्म नियंत्रण की अवधारणा समाप्त होने लगी थी। हटकिन्स आयोग ने जनमाध्यामें की इस प्रवृत्ति को लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक  बताते हुए सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिपादन किया। 
            
          हटकिन्स आयोग का मानना है कि प्रेस की स्वतंत्रता सामाजिक उत्तरदायित्व में निहित है। यह सिद्धांत वास्तव में उदारवादी सिद्धांत पर आधारित है तथा उसी की वैचारिक पृष्ठभूमि पर विकसित हुआ है। यह सिद्धांत एक ओर जनमाध्यमों की स्वायत्ता को स्वीकार करता है तो दूसरी ओर उसके सामाजिक उत्तरदायित्व को भी याद दिलाता है। अत: जनमाध्यमों की सामग्री सनसनीखेज नहीं बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व पर केंद्रीत व सत्य परख होनी चाहिए। इसके लिए आयोग ने एक नियमावली व्यवस्था लागू करने का सुझाव भी दिया है, जिसे प्रेस के क्रिया-कलाप को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। हटकिन्स आयोग ने कुछ सरकारी कानूनों का सुझाव दिया, जिसमें प्रेस के मुनाफाखोर या गैर-जिम्मेदार होने की स्थिति में स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी होने के बावजूद प्रेस पर अंकुश लगाने का प्रावधान है। सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत की प्रमुख अवधारणाएं निम्नलिखित हैं :- 
जनमाध्यमों को समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का स्वयं निर्धारण तथा पालन करना चाहिए।
समाज की घटनाओं का सार्थक तरीके से संकलित करके सत्य, सम्पूर्ण व बुद्धिमत्तापूर्ण चित्र के साथ प्रस्तुत करना चाहिए। 
सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए जन माध्यामोंं को स्वयं स्थापित संस्थागत नियम व कानूनों के अंतर्गत निश्चित प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिए।
जनमाध्यमों को विचारों के आदान-प्रदान के साथ-साथ आलोचना का वास्तविक मंच भी बनना चाहिए।
समाज में अपराध, हिंसा, क्लेश व अशांति उत्पन्न करने वाली सूचनाओं से जन माध्यमों को दूर रहना चाहिए।
सामाजिक उद्देश्यों एवं मूल्यों की प्रस्तुति, स्पष्टीकरण तथा स्पष्ट समझ बनाने के लिए गंभीर होना चाहिए। 
जन अभिरूचि के नैतिक मूल्यों के विकास की कोशिश करनी चाहिए।
नये तथा बुद्धिमत्तापूर्ण विचारों को उचित स्थान तथा सम्मान देना चाहिए। 
विशेषताएं : सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत प्रेस को त्रुटि रहित तथा सामाजिक उत्तरदायित्व पूर्ण बनाता है। फिर भी इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
उदारवाद की अगली कड़ी है। 
स्वतंत्र अभिव्यक्ति का पक्षधर है। 
प्रेस पर नैतिक प्रतिबंध लगाता है। 
स्वतंत्रता के साथ सामाजिक उत्तरदायित्व पर जोर देता है। 
गैर-जिम्मेदार प्रेस पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपता है।

लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत
(Democratic Participant Theories)

          यह विकासित देशों की मीडिया पर आधारित आधुनिक सिद्धांत है, जिसका प्रतिपादन जर्मनी के मैकवेल ने किया है। लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत के अंतर्गत मीडिया को औद्योगिक घरानों से मुक्त रखने तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया है। इस सिद्धांत में स्वतंत्रतावाद, कल्पनावाद, समाजवाद, समतावाद, क्षेत्रवाद के साथ मानव अधिकार के तत्वों को सम्मलित किया गया है, जो शासन के अधिपत्य को चुनौती देता है। इस सिद्धांता की अवधारणा भले ही विकसित देशों की मीडिया पर आधारित है, लेकिन इसे विकासशील देशों की मीडिया पर भी लागू किया जाता है। लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत के अनुसार, देश-समाज हित के लिए संदेश व माध्यम काफी महत्वपूर्ण हैं। इन्हें किसी भी कीमत पर औद्योगिक घरानों के हाथों में सौंपा नहीं जाना चाहिए।  

          लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया के माध्यम से सम्प्रेषण का अधिकार समान रूप से सभी को उपलब्ध कराने के उद्देश्य से लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत का प्रतिपादन जर्मनी में किया गया। यह सिद्धांत पाठकों, दर्शकों व श्रोताओं को मात्र ग्रहणकर्ता होने के कथन को भी नकारता है। मैकवेल का मानना है कि मीडिया का स्वरूप लोकतांत्रिक व विकास प्रक्रिया में जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने वाला होना चाहिए।  
         19वीं शताब्दी में लोक प्रसारण या सार्वजनिक प्रसारण की अवधारण के अंतर्गत समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक इत्यादि क्षेत्रों में लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत उच्च स्तरीय सुधार की अपेक्षा की गई थी, जिसे सार्वजनिक प्रसारण संगठनों द्वारा पूरा नहीं किया गया। इसका मुख्य कारण शासन-प्रशासन से निकट सम्बन्ध, आर्थिक व व्यापारिक दबाव, अभिजातपूर्ण व्यवहार इत्यादि है। ऐसी स्थिति में आम जनता की आवाज को सामने लाने के लिए वैकल्पिक तथा जमीनी मीडिया स्थापित करने की आवश्यकता महसूस की गई। यह सिद्धांत स्थानीय महत्वपूर्ण सूचनाओं के अधिकार, जवाब देने के अधिकार की वकालत करने हेतु नये मीडिया के विकास की बात करता है। यह सिद्धांत मंहगे, बड़े तथा पेशेवर मीडिया संगठनों को नकारता है तथा मीडिया को राजकीय नियंत्रण से मुक्त होने की वकालत करता है। इस सिद्धांत के अनुसार मीडिया को पंूजीवादी नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसका प्रभाव मीडिया की विषय वस्तु पर पड़ता है। प्रभावी संचार के लिए मीडिया का आकार छोटा, बहुआयामी तथा समाज के सभी वर्गो के बीच संदेश को भेजने व प्राप्त करने की दृष्टि से सर्वसुलभ व सस्ता होना चाहिए। इसके अंतर्गत स्थानीय व क्षेत्रीय मीडिया पर विशेष जोर दिया गया है, क्योंकि यह आम जनता की जरूरत और समझ को अधिक समझते हैं। उदाहरण- प्रिंट मीडिया में प्रमुख समाचार पत्र अपने राष्ट्रीय संस्करणों के साथ स्थानीय संस्करण भी प्रकाशित करते हैं। इसके लिए समाचारों का संकलन प्रदेश, जिला, तहसील व क्षेत्र वार करते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के कारण कैमरा स्टूडियों से निकल कर गली-मुहल्लों के चौराहों तक पहुंच गया है। 

विशेषताएं : लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
जनसंचार का प्रमुख साधन है- मीडिया, जिसका संचालन अनुभवी व प्रशिक्षित व्यक्तियों के हाथों में होना चाहिए।
प्रत्येक नागरिक को अपनी आवश्यकता के अनुरूप मीडिया का उपयोग करने का अधिकार होना चाहिए। 
 मीडिया की अपेक्षाओं की पूर्ति न तो वैयक्तिक उपभोक्ताओं की मांग से पूरी होती है और न तो राज्यों से।
 मीडिया की अंतर्वस्तु तथा संगठन सत्ता व राजनैतिक तंत्र के दबावों से मुक्त होना चाहिए। 
छोटे व क्रियाशील मीडिया संगठन बड़े संगठनों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।

सोवियत मीडिया सिद्धांत
मेस कम्यूनिकेशन, पॉलिटिकल कम्युनिकेशन में


परिचय:

1917 की क्रांति के बाद, मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांतों पर आधारित नई राजनीतिक प्रणाली के साथ सोवियत संघ का पुनर्गठन किया गया था। लेनिन द्वारा नवगठित कम्युनिस्ट पार्टी मीडिया में बहुत रुचि दिखाती है जो देश में श्रमिक वर्ग और उनके वर्ग में काम करती है। इसलिए सोवियत मार्क्सवादी, लेनिनवादी और स्टालिनवादी विचारों से एक सिद्धांत उत्पन्न करती है, जिसमें जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिक हेगेल विचारधारा के मिश्रण को "सोवियत मीडिया सिद्धांत" कहा जाता है, जिसे "कम्युनिस्ट मीडिया सिद्धांत" के रूप में भी जाना जाता है। इसी सिद्धांत को जर्मनी में एडोल्फ हिटलर की नाजी और इटली में बेनिटो मुसोलिनी द्वारा विकसित किया गया था।


सोवियत मीडिया सिद्धांत:

सोवियत मीडिया सिद्धांत लेनिनवादी सिद्धांतों की नकल है जो कार्ल मार्क्स और एंगेल की विचारधारा पर आधारित है। सरकार कामकाजी वर्गों और उनकी रुचि को पूरा करने के लिए कुल मीडिया और संचार का कार्य करती है या नियंत्रित करती है। थ्योरी का कहना है कि राज्य के पास लोगों के लाभ के लिए किसी भी मीडिया को नियंत्रित करने की पूर्ण शक्ति है। उन्होंने प्रेस और अन्य मीडिया के निजी स्वामित्व को समाप्त कर दिया। सरकारी मीडिया एक मजबूत समाजीकृत समाज बनाने के साथ-साथ सूचना, शिक्षा, मनोरंजन, प्रेरणा और गतिशीलता प्रदान करने के लिए सकारात्मक विचार प्रदान करता है। सिद्धांत मास मीडिया के पूरे उद्देश्य का वर्णन करता है, श्रमिक वर्ग या श्रमिकों की अधिक से अधिक जनता को शिक्षित करना है। यहां, जनता को प्रतिक्रिया देने के लिए प्रोत्साहित किया गया जो मीडिया के प्रति रुचि पैदा कर सके।

अधिनायकवादी सिद्धांत के अनुसार, मीडिया देश में मंत्रालयों द्वारा नियंत्रित और सेंसर किया गया है, लेकिन स्वतंत्र रूप से किसी भी प्राधिकरण या सरकार के हस्तक्षेप के बिना पूरी तरह से स्वतंत्र है, सामाजिक जिम्मेदारी सिद्धांत - एक हाथ में स्वतंत्रता दबाएं, लेकिन दूसरे हाथ से उन्होंने सवाल उठाने पर प्रेस को नियंत्रित किया और सोवियत मीडिया सिद्धांत, मीडिया का संपूर्ण नियंत्रण राष्ट्र के नेता के अधीन है।

सोवियत मीडिया सिद्धांत के आलोचक:

सोवियत मीडिया सिद्धांत सत्तावादी सिद्धांत के समान दिखता है लेकिन मुख्य भाग एक दूसरे से अलग है। सत्तावादी सिद्धांत में एक तरह से संचार है, जनता से कोई प्रतिक्रिया की अनुमति नहीं है लेकिन सोवियत मीडिया सिद्धांत में एक दो तरह से संचार है उसी समय पूरे मीडिया को नियंत्रित किया जाता है या नेतृत्व में काम करता है।
निजी स्वामित्व की अनुमति नहीं है जो बिना किसी प्रतिबंध के प्रेस का नेतृत्व करता है और यह बिना किसी आधिकारिक अवरोध के लोगों की सेवा कर सकता है।
सोवियत मीडिया सिद्धांत व्यक्तिगत के बजाय राष्ट्र हित के आधार पर कुछ प्रतिबंध की अनुमति देता है।
सोविट मीडिया सिद्धांत जैसे कम्युनिस्ट सिद्धांतों के तहत, पत्रकार या प्रेस को एक प्रहरी के बजाय नेतृत्व का समर्थन करना चाहिए।
अगर नेतृत्व गलत है तो पूरे देश को बहुत नुकसान होगा।



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